भये प्रगट गोपाला दीनदयाला यशुमति के हितकारी।
हर्षित महतारी सुर मुनि हारी मोहन मदन मुरारी ॥
कंसासुर जाना मन अनुमाना पूतना वेगी पठाई।
तेहि हर्षित धाई मन मुस्काई गयी जहाँ यदुराई॥
तब जाय उठायो हृदय लगायो पयोधर मुख मे दीन्हा।
तब कृष्ण कन्हाई मन मुस्काई प्राण तासु हर लीन्हा॥
जब इन्द्र रिसायो मेघ पठायो बस ताहि मुरारी।
गौअन हितकारी सुर मुनि हारी नख पर गिरिवर धारी॥
कन्सासुर मारो अति हँकारो बत्सासुर संघारो।
बक्कासुर आयो बहुत डरायो ताक़र बदन बिडारो॥
तेहि अतिथि न जानी प्रभु चक्रपाणि ताहिं दियो निज शोका।
ब्रह्मा शिव आये अति सुख पाये मगन भये गये लोका॥
यह छन्द अनूपा है रस रूपा जो नर याको गावै।
तेहि सम नहि कोई त्रिभुवन सोयी मन वांछित फल पावै॥
नंद यशोदा तप कियो , मोहन सो मन लाय।
देखन चाहत बाल सुख , रहो कछुक दिन जाय॥
जेहि नक्षत्र मोहन भये ,सो नक्षत्र बड़िआय।
चार बधाई रीति सो , करत यशोदा माय॥
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